नाम- पप्पू यादव
बिहार में सीमांचल और मिथिलांचल की सियासत में तीन दशक से अपनी दबंगई का लोहा मनवा चुके राजेश रंजन यादव ऊर्फ पप्पू यादव का नाम किसी जमाने में लोग जुबान पर लाने से भी डरते थे.. लेकिन परिस्थितियां बदली, तो जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह सियासत का शहंशाह बन गया.. दबंग से दयावान बन गया… बाहुबली से रॉबिन हुड हो गया.. गुंडा और माफिया से गरीबों का मसीहा बन गया..
सलाखों की कैद में 17 साल..कभी दिल्ली की तिहाड़ जेल..तो कभी पटना की बेऊर जेल में ठिकाना.. और जेल में रहकर भी मोबाइल पर 600 से भी ज्यादा फोन कॉल्स.. और दबदबा ऐसा कि लोग नाम से भी थरथराते थे.. कांग्रेस में विलय कर चुके पप्पू यादव जो आज खुद को गरीबों का मसीहा कहते हैं.. लेकिन एक वक्त ऐसा भी था, जब वो हत्या और अपहरण जैसे संगीन आरोपों से घिरे थे.. पप्पू यादव करीब 31 मामलों में जेल की हवा खा चुके हैं… लेकिन जेल से निकलने के बाद पप्पू यादव कैसे बन गए गरीबों के मसीहा और बेस्ट सासंद… कहते हैं कि अपराध की दुनिया में आना आसान है.. लेकिन जाना नहीं.. क्योंकि यहां एंट्री गेट तो होती है.. एक्जिट गेट नहीं.. क्योंकि अपराध के आंगन से बाहर निकलने के जो दरवाजे होते हैं… वो या तो सलाखों के पीछे खुलती है.. या फिर ईश्वरलोक में.. लेकिन पप्पू यादव ने इस कहावत को झुठलाया ही नहीं.. बल्कि अपनी पहचान को भी 360 के कोण में घुमा दिया..
जी हां.. बिहार में जिस दौर में राजनीति का अपराधिकरण हो रहा था.. उसी दौर में शुरू होती है बाहुबली पप्पू यादव के दबंग से दयावान बनने की कहानी…
वो दशक था 1990 का.. तब अपराध की दुनिया में पप्पू यादव का नाम तहजीब से लिया जाता था.. यही वो वक्त था.. जब क्राइम का कारोबार करने वाले बाहुबली ने सीमांचल की सियासत का शहंशाह बनने की ठानी.. हत्या और अपहरण के आरोपों से घिरे पप्पू ने बाहुबली से रॉबिन हुड बनने की सोची… यहीं से पप्पू की गुंडे और माफिया वाली पहचान बदलकर एक दमदार शख्सियत के रूप में उभरती है…
वो साल था 1990 का..जब मधेपुरा के सिंघेश्वरस्थान विधानसभा की सीट से पहली बार विधायक बनने वाले पप्पू यादव ने बहुत कम वक्त में कोसी बेल्ट के कई जिलों में अपना प्रभाव बढ़ा लिया….पप्पू ने मधेपुरा नहीं, बल्कि पूर्णिया, सहरसा, सुपौल और कटिहार जिलों में अपने समर्थकों का मजबूत नेटवर्क खड़ा कर लिया…
ठीक उसी समय कोसी के इलाके में आनंद मोहन का राजनीति में अवतरण हुआ था… वो भी 1990 में जनता दल के टिकट पर पहली बार विधायक बनकर विधानसभा पहुंचते हैं.. मतलब सीमांचल की जमीन पर दो बाहुबली..सियासत के दो ध्रुवों पर कदम रख चुके थे. एक अगड़ों की राजनीति के अगुवा थे.. आरक्षण के विरोध में खड़े..तो दूसरे पिछड़ों की सियासत का झंडा बुलंद कर रहे थे..
1990 में विधायक बनने के बाद पप्पू यादव का लक्ष्य लोकसभा था….. यही कारण है कि उनकी दबंगई खत्म नहीं हुई और अगड़ी-पिछड़ी की लड़ाई करते रहे…. आनंद मोहन सिंह मुख्य विरोधी थे.. दोनों के बीच कई बार वर्चस्व की लड़ाई हुई… 1990 में कितनी जानें भी गई थी…. तब सहरसा के पामा में पप्पू यादव के समर्थक और आनंद मोहन के समर्थकों के बीच जमकर गोलियां चली थीं.. कई लोगों की जानें गईं..
दूसरी घटना पूर्णिया के भांगड़ा में हुई थी…. यहां भी कई लोग मारे गए थे…. हालांकि उस वक्त दोनों वर्चस्व की लड़ाई लड़ते थे…. पप्पू यादव पिछड़ा की राजनीति और यादव समाज को एकजुट करने के लिए वोट की राजनीति कर रहे थे.. तो आनंद मोहन अगड़ी जाति के नेता के रूप में उभर रहे थे….
ये वो समय था.. जब पप्पू यादव का भय सीमांचल में इस कदर था कि लोग उनका नाम लेने से भी डरते थे….हत्या, किडनैपिंग, मारपीट, बूथ कैपचरिंग, आर्म्स एक्ट जैसे कई मामले अलग-अलग थानों में दर्ज थे.. लेकिन पप्पू यादव को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अजीत सरकार की हत्या के मामले में 17 साल जेल में रहना पड़ा था….
14 जून 1998 में माकपा नेता अजीत सरकार की हत्या हो जाती है.. जिसका आरोप पप्पू यादव पर लगता है.. और 24 मई 1999 को इसी आरोप में पप्पू यादव की गिरफ्तारी हो जाती है.. उस समय भी पप्पू यादव पूर्णिया लोकसभा सीट से सांसद थे.. 2008 में सीबीआई की विशेष अदालत पप्पू को आजीवन करावास की सजा सुनाती है.. लेकिन 2013 में पटना हाईकोर्ट सबूतों के अभाव में पप्पू को बरी कर देता है..
जेल से लौटने के बाद पप्पू यादव अपनी छवि बनाने में लग जाते हैं.. लोगों के मसीहा बनन लगते हैं… कोई घटना होती है, तो आवाज उठाते हैं.. पीड़ितों से जाकर मिलते हैं.. 2019 में जब पटना में तेज बारिश से बाढ़ आई थी और राजधानी जलमग्न हुआ, तो पप्पू यादव ने नाव के सहारे लोगों को खाना-पानी दिया था…
पप्पू यादव एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते हैं…. उनके पास जमीन और संपत्ति की कमी नहीं थी…. कॉलेज में जाने के बाद पप्पू यादव की पहचान दबंग के रूप में हो रही थी…. उनकी दबंगई के चर्चे सीमांचल के कई जिलों में थे….ये दौर 1980 के बाद की है….उसी वक्त लालू प्रसाद यादव भी अपनी राजनीतिक करियर चमकाने में लगे हुए थे.. उस वक्त कॉलेज से निकलने के बाद पप्पू यादव ने लालू यादव का साथ दिया था और पप्पू यादव की दबंगई लालू यादव के काम आई…. उस वक्त पप्पू यादव पर लालू यादव के लिए बूथ कैपचरिंग या फिर मत पेटियों को चुरा लेने का आरोप लगता था…
लेकिन 1990 में विधायक बनने के बाद से पप्पू की वो छवि धीरे धीरे बदलती चली गई.. पहली बार 1991 में पूर्णिया से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत हासिल की.. इसके बाद 1996 और 1999 में भी वह पूर्णिया से ही निर्दलीय सांसद बने. 2004 में लालू प्रसाद यादव ने उन्हें मधेपुरा से आरजेडी का टिकट दिया और वह चौथी बार जीते.. 2008 में उन पर हत्या का आरोप साबित हो गया, तो उनकी सदस्यता रद्द हो गई.. 2013 में पटना हाईकोर्ट से राहत मिलने के बाद पप्पू यादव फिर पांचवीं बार 2014 में आरजेडी के टिकट से मधेपुरा से चुनाव लड़े और पांचवीं बार जीते…
लेकिन 2015 में तेजस्वी यादव की बयानबाजी के बाद पप्पू खफा हो गए और आरजेडी से दूरी बनाकर अपनी ‘जन अधिकार पार्टी’ बनाई…. 2019 में पप्पू यादव अपनी ही पार्टी से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए… 2013 में जेल से आने के बाद से ही पप्पू यादव का रुख लालू और आरेजडी को लेकर बदल चुका था… जेल से आकर पप्पू लगातार जनता के बीच काम करते रहे.. पटना हो या फिर पूर्णिया, बाढ़ हो या फिर बवाल… खुद आगे बढ़कर लोगों को राहत और मदद करते रहे.. कभी पैसों से तो कभी खाने और पीने के सामान से.. पप्पू ने एक भाई बनकर, एक पिता बनकर, एक बेटा बनकर, जनता की खूब सेवा की.. इसी सेवा ने पप्पू की बाहुबली पहचान पर रॉबिन हुड का स्टांप लगा दिया.. दबंग की छवि पर दयावान का रंग चढ़ा दिया..
कहते हैं कि पहली नजर का प्यार इंसान कभी नहीं भूलता है.. पप्पू यादव के साथ भी यही हुआ.. पप्पू ने टेनिस खेलते हुए रंजीत की फोटो देखी और उसी वक्त रंजीत पर उनका दिल आ गया. लेकिन पप्पू को जल्द ही अहसास भी हो गया कि मोहब्बत की राहों पर चलना आसान नहीं है, क्योंकि रंजीत सिख धर्म की थीं…और पप्पू यादव का परिवार आनंदमार्गी… तो फिर रंजीत कौर कैसे बनीं पप्पू यादव के सात जन्मों की साथी..
जितनी दिलचस्प पप्पू यादव का आपराधिक और सियासी सफर रहा है.. उतनी ही दिलचस्प पप्पू की प्रेम कहानी भी है.. पप्पू का दिल जिस रंजीता रंजन के लिए धड़कता है, उनके साथ ही लव स्टोरी भी बेहद खास है… ये प्रेम कहानी साल 1991 में पनपती है.. और 3 साल परवान चढ़ती है.. और 1994 में जाकर पप्पू यादव की प्रेम कहानी को मुकाम मिलता है.. वो लड़की जिसे पप्पू यादव दिलों जान से चाहते हैं.. उनकी अर्धांगनी बन जाती हैं..
1991 में पप्पू यादव पटना की जेल में बंद थे.. वे अक्सर जेल सुपरिटेडेंट के आवास से सटे मैदान में लड़कों को खेलते देखा करते थे… इन्हीं लड़कों में एक लड़का था विक्की… पप्पू की विक्की से नजदीकियां बढ़ गईं.. फिर एक दिन पप्पू ने उसके फैमिली एलबम में रंजीत कौर की टेनिस खेलती तस्वीर देखी… यही तस्वीर पप्पू यादव की पहली नजर में प्यार बन गया.. इसके बाद जब जेल से छूटे तो रंजीत को देखने अक्सर वहां चले जाते थे, जहां वे टेनिस खेलतीं थीं… पप्पू ने पहली बार रंजीत कौर को पटना क्लब में देखा था….लेकिन रंजीत को ये पंसद नहीं था.. पटना के बाद रंजीत चली गई.. रंजीत के पिता सेना से रिटायर होने के बाद गुरुद्वारे में ग्रंथी हो गए थे… अब पप्पू ने रंजीत को फॉलो करने के लिए पटना से चंडीगढ़ तक के चक्कर लगाने शुरू कर दिए थे… ये सिलसिला करीब तीन साल तक चलता रहा… दो साल तक तो रंजीत को इसका पता तक नहीं चला… जब इस दीवानगी का पता चला, तो रंजीत ने कड़े शब्दों में मना किया, लेकिन पप्पू कहां मानने वाले थे… नहीं मानने पर रंजीत ने समझाया कि वे सिख हैं और पप्पू हिंदू, इसलिए परिवार वाले उनकी शादी के लिए राजी नहीं होंगे…रंजीत के माता पिता इस शादी के खिलाफ थे.. लेकिन पप्पू ने हार नहीं मानी….
पप्पू अब रंजीत के बहन-बहनोई को मनाने चंडीगढ़ जा पहुंचे…इसी बीच राजनीति में मुकाम बना चुके पप्पू को पता चला कि कांग्रेस नेता एसएस अहलूवालिया की बात रंजीता का परिवार नहीं टाल सकता है… फिर क्या था, पप्पू ने दिल्ली जाकर अहलूवालिया से मदद की गुहार लगाई…. उन्होंने मदद भी की… प्यार को पाने की इस कोशिश का क्लाइमेक्स तब आया, जब हताशा में पप्पू ने नींद की ढेरों गोलियां खा लीं…
हालत बिगड़ी तो इलाज के लिए उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया… इस घटना के बाद उनके प्रति रंजीत का व्यवहार कुछ नरम हुआ… ये घटना इस प्रेम कहानी का टर्निंग प्वाइंट था…
रंजीत के पप्पू को लेकर सॉफ्ट होने के बाद उनके माता-पिता भी मान गए…. फिर देानों की शादी पूर्णिया के गुरुद्वारे में होनी तय की गई…. लेकिन दूल्हा बने पप्पू के हाथ पैर उस वक्त फूल गए..
जब शादी के लिए दुल्हन रंजीत और उनके परिवार को लेकर आ रहा चार्टर्ड विमान रास्ते में ही भटक गया…हंगामा मच गया…आखिरकार जब विमान पहुंचा.. तो सबों ने राहत की सांस ली… फरवरी 1994 में पप्पू और रंजीत की शादी के हुई..
तब पूर्णिया की सड़कों को सजाया गया था… सारे होटल और गेस्ट हाउस बुक कर दिए गए थे… इस शादी में चौधरी देवीलाल, लालू प्रसाद यादव, डीपी यादव और राज बब्बर सहित अनेक गणमान्य लोग शामिल हुए थे… आम लोगों के लिए भी खास व्यवस्था की गई थी.. पप्पू और रंजीत रंजन बिहार की पहली जोड़ी है…जिन्होंने एक साथ संसद में प्रवेश पाया है… आज पप्पू यादव पूर्णिया से निर्दलीय सांसद हैं… तो पत्नी रंजीता रंजन सुपौल से कांग्रेस की पूर्व सांसद रही हैं… आज रंजीत रंजन दमदार राजनेता के साथ अच्छी पत्नी और मां भी हैं… पप्पू अपनी पत्नी की सराहना करते थकते नहीं हैं…. उनके ईमानदार और बिना लाग-लपेट वाले स्वभाव के वे कायल हैं…दोनों के एक बेटा सार्थक रंजन और एक बेटी प्रकृति रंजन हैं.. 27 साल का बेटा सार्थक भी तेजस्वी की तरह क्रिकेटर रहा है.. लेकिन क्रिकेट के मैदान में हाथ तंग नजर आया… तो पिता के साथ राजनीति का ककहरा सिखने लगे.. पप्पू ने अपनी पूरी प्रेम कहानी अपनी किताब द्रोहकाल का पथिक में बयां की हैं…
पप्पू यादव ने जिस आशा और उम्मीद से कांग्रेस का हाथ थामा था.. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की सौगंध खाई थी… मिथिलांचल और सीमांचल में इंडिया गठबंधन का पताका फहराने का ऐलान किया था.. चुनाव के चंद ही दिनों में पप्पू के उन उम्मीदों औऱ आशाओं पर पानी फिर गया.. हालांकि पप्पू ने हार नहीं मानी और लालू की पार्टी से खड़ी हुईं बीमा भारती को हराते हुए पूर्णिया में जीत का पताका लहराया.. और पूर्णिया से सीधे दिल्ली पहुंच गए..
मतलब साफ था कि पप्पू यादव का यलगार इंडिया गठबंधन के लिए वो तलवार साबित हो रही थी.. जिस पर दोनों तरफ से जख्म गठबंधन को ही पहुंचने वाला था.. ऐसे में पप्पू यादव के उन वादों और इरादों का क्या..जिसमें कांग्रेस को मजबूत और राहुल को पीएम बनाने का दावा था.. बिहार में इंडिया गठबंधन का पताका फहराने का विश्वास था.. कभी लालू यादव के तीसरा और बड़ा बेटा होने का दावा करने वाले पप्पू को आखिर चुनाव में लालू का आशीर्वाद क्यों नहीं मिला.. आखिर पप्पू यादव से कहां चूक हुई.. क्या कांग्रेस के साथ जाकर पप्पू ने लालू को नाराज कर दिया.. या फिर लालू की बात नहीं मानकर पप्पू ने कहीं कोई बड़ी सियासी गलती कर दी.. पप्पू पिछले एक साल से पूर्णिया में सक्रिय हैं.. एक एक परिवार से मिले हैं.. तीन बार के सांसद रहे हैं.. 6 बार चुनाव लड़े हैं.. और सबसे बड़ी बात एक आस्था, विश्वास और विचारधारा के तहत कांग्रेस में शामिल हुए.. तो क्या पप्पू यादव के लिए कहीं वो कहावत तो सच नहीं हुई.. जिसमें कहते हैं कि दुविधा में दोनों गए. .माया मिली न राम..
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